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ब्रह्माण्ड का अंत कैसे हो !


हमारा पिछला लेख “दो अनसुलझे सवाल” का पहला प्रश्न ब्रह्माण्ड के अस्तित्व से सम्बंधित और दूसरा प्रश्न ब्रह्माण्ड के अंत से सम्बंधित था। आज हम दूसरे प्रश्न और सम्बंधित विषय का गहराई से अध्ययन करेंगे और जानने की कोशिश करेंगे कि क्या ब्रह्माण्ड की उम्र को हम प्रभावित करते हैं या नही ? “ब्रह्माण्ड का अंत कैसे हो !” क्या हम अपने क्रियाकलापों (प्रभाव) द्वारा ब्रह्माण्ड के अंत (उम्र) के तरीके को निर्धारित कर सकते हैं ? या फिर उस निर्धारित तरीके को केवल जान सकते हैं ? क्या होता होगा ? ब्रह्माण्ड के अंत को कौन निर्धारित करता है ? हम कैसें जानेंगे कि ब्रह्माण्ड का अंत कैसे होगा ? रुको-रुको थोड़ा सा धैर्य रखो, अभी तो इस विषय पर चर्चा शुरू हुई है।

ब्रह्माण्ड के अंत पर चर्चा करने से पहले हमें ब्रह्माण्ड का अंत करने वाले घटकों को समझना होता है। और साथ ही यह भी समझना होता है कि ये घटक किस तरह से ब्रह्माण्ड की उम्र को प्रभावित और ब्रह्माण्ड के अंत के तरीके को निर्धारित करते हैं। “ब्रह्माण्ड का अंत” सुनते से ही हमारे दिमाग में समय संबंधी प्रश्न उभर आते हैं। क्योंकि समय, ब्रह्माण्ड के अंत का एक महत्वपूर्ण घटक और कारक दोनों होता है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कब हुई ? प्रश्न में समय एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में कार्य करता है। जबकि ब्रह्माण्ड का अंत कब होगा ? प्रश्न में समय ब्रह्माण्ड के अंत का एक प्रमुख घटक होता है जो यह निर्धारित करता है कि ब्रह्माण्ड का अंत कैसे हो !

जैसा की हम सभी जानते हैं कि ब्रह्माण्ड का सृजन महा-विस्फोट घटना के रूप में समय और अंतराल की उत्पत्ति के साथ हुआ है और इसलिए ब्रह्माण्ड के सृजन के पूर्व समय और अंतराल का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसके बाबजूद यदि कुछ वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के सृजन के पूर्व को जानने की कोशिश कर रहे हैं। तो इसका तात्पर्य यह है कि वे वैज्ञानिक ब्रह्माण्ड के स्वरुप को दोलित ब्रह्माण्ड (संभावित) के रूप में देखते हैं और उसकी सम्भावित सम्भावनाओं को खोज रहे हैं। इस प्रकार के ब्रह्माण्ड में महा-विस्फोट की घटना ब्रह्माण्ड का प्रारम्भ न होकर ब्रह्माण्ड का एक पहलू होती है। महा-विस्फोट घटना के समय ब्रह्माण्ड अतिसूक्ष्म अवस्था के रूप में अस्तित्व में था। आज भी वैज्ञानिकों के लिए यह संशय का विषय बना हुआ है कि महा-विस्फोट घटना के समय ब्रह्माण्ड अतिसूक्ष्म रूप में था या फिर एक बिंदु के रूप में केंद्रित था ! परन्तु दोनों परिस्थितियों से इतना तो तय है कि महा-विस्फोट के समय ब्रह्माण्ड का घनत्व अधिकतम (सघन) था और अब वह घनत्व कम (विरल) होते जा रहा है। इस तरह ब्रह्माण्ड का निरंतर विस्तार समय और अंतराल के रूप में हो रहा है। घनत्व = द्रव्यमान / आयतन

अभी तक हमने देखा कि समय और अंतराल की उत्पत्ति ब्रह्माण्ड के सृजन के साथ ही हुई है। और अब हम समय और अंतराल के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्माण्ड के अंत को समझने की कोशिश करेंगे। हमें वर्तमान के जो आंकड़े उपलब्ध होते हैं सिर्फ उनके आधार पर हम यह निर्धारित नहीं कर सकते कि ब्रह्माण्ड का अंत कैसे हो ! ब्रह्माण्ड के अंत को समझने के लिए हमको भूतकाल के आंकड़ों की भी आवश्यकता होती है। समय और अंतराल के संयोजित आंकङों के आधार पर ही हम यह निर्धारित कर सकते हैं कि ब्रह्माण्ड का अंत कैसे हो ! समय और अंतराल के संयोजित आंकड़े तीन भिन्न-भिन्न परिस्थितियों को जन्म देते हैं। परन्तु इनमें से केवल एक परिस्थिति का अनुसरण ब्रह्माण्ड के द्वारा किया जाता है। जो इस बात को भी दर्शाता है कि ब्रह्माण्ड का स्वरुप कैसा है ? और आंगे चलकर उसका अंत कैसा होगा ! यानि कि ब्रह्माण्ड का स्वरुप ब्रह्माण्ड के अंत को निर्धारित करता है। ठीक वैसे ही जैसे कि मनुष्य का अंत उसके मरने के साथ होता है और पेड़-पौधों का अंत उसके सूखने के साथ होता है। जैसा कि हमने पहले भी लिखा है कि समय, कारक और घटक दोनों के रूप में ब्रह्माण्ड का अंत करता है। यानि कि ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के समय कितनी थी ? या फिर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कब हुई ? दोनों प्रश्नों में समय कारक के रूप में कार्यरत होता है। और ब्रह्माण्ड का अंत नियत समय, सीमित समय या अनंत समय के साथ होगा ? इस प्रश्न में समय घटक के रूप में कार्यरत रहता है। अंतराल केवल घटक के रूप में ही कार्यरत होता है। और यह निर्धारित करने में सहायता प्रदान करता है कि ब्रह्माण्ड का अंत सूक्ष्म रूप में, मंदाकिनियों के मध्यस्त दूरी बढ़ने के रूप में या फिर ब्रह्माण्ड के मूल अवयवों तक ब्रह्माण्ड के टूटने के रूप में होगा ?

ब्रह्माण्ड की नियति के चार परिदृश्य :
महा-विच्छेद : ब्रह्माण्ड के अंत का यह सबसे भयावह परिदृश्य है। क्योंकि इस अवस्था में परमाणु भी अपने अवयवी तत्वों में टूट जाता है। इस परिदृश्य के अनुसार हमको और आपको घबराने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि इस भयावह परिदृश्य के पहले ही हमारी आकाशगंगा (दुग्ध-मेखला), सौरमंडल और सभी ग्रह पहले ही नष्ट हो जाएंगे। नष्ट होने का यह क्रम व्यापक पैमाने से निचले पैमाने की ओर होता है।
महा-शीतलन : इस परिदृश्य के अंतर्गत ब्रह्माण्ड की सभी मंदाकिनियां एक दूसरे से दूर जाती जाएंगी। जिससे कि मंदाकिनियों के मध्यस्त किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रह पाएगा। फलस्वरूप ब्रह्माण्ड के ताप में अत्यधिक कमी आएगी। और ब्रह्माण्ड का अंत शीतलन के रूप में होगा।
महा-संकुचन : इस परिदृश्य के अंतर्गत ब्रह्माण्ड में संकुचन प्रारम्भ हो जाएगा और तत्पश्चात ब्रह्माण्ड एक नए ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिए तैयार होगा। सम्भव है कि यह ब्रह्माण्ड भी किसी अन्य ब्रह्माण्ड के पतन (अंत) के पश्चात् ही अस्तित्व में आया हो।
महाद्रव अवस्था : इस परिदृश्य के अंतर्गत ब्रह्माण्ड के द्रव्य का उपयोग एक नए ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के रूप में होता हुआ दिखलाई देता है। ब्रह्माण्ड के इस द्रव्य का उपयोग प्रकाश की गति के समान होगा। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हिग्स बोसॉन कण के अस्तित्व के प्रमाण की पुष्टि सर्न द्वारा जुलाई 2012 को कर दी गई है। उसी के बाद से महाद्रव अवस्था को ब्रह्माण्ड की नियति के रूप में देखा जाने लगा है। जिसके अनुसार जैसा कि हम सभी जानते हैं कि ब्रह्माण्ड स्वाभाविक रूप से अस्थिर है और हिग्स बोसोन कण ने ब्रह्माण्ड को द्रव्यमान देने का कार्य किया हुआ है, के द्वारा ब्रह्माण्ड के इस द्रव्य का उपयोग एक नए उभरते हुए ब्रह्माण्ड के निर्माण में होने लगेगा। और इस उभरते हुए ब्रह्माण्ड के निर्माण का कार्य हिग्स बोसोन कण के द्वारा किया जाएगा। यह ठीक वैसे ही होगा जैसे कि हिग्स बोसोन कण ब्रह्माण्ड के द्रव्य को द्रव के रूप में सुड़क रहा है। ताकि उसका उपयोग किसी अन्य रूप में अन्य तरीके से कर सके।

महा-विच्छेद
महा-विच्छेद
महा-शीतलन
महा-शीतलन
महा-संकुचन
महा-संकुचन
महा द्रव-अवस्था
महा द्रव-अवस्था

ब्रह्माण्ड के घटकों के आधार पर नियति के परिदृश्यों का विश्लेषण :
जैसा कि हमने अपने पिछले लेख (ब्रह्माण्ड किसे कहते हैं ?) में लिखा था कि ब्रह्माण्ड के दो सैद्धांतिक घटक पदार्थ और ऊर्जा होते हैं तथा दो व्यावहारिक घटक स्थिति और भौतिक राशियाँ होती हैं। ये घटक ब्रह्माण्ड के अंत से सीधा संबंध रखते हैं को हम यहाँ समझने की कोशिश करेंगे। “ब्रह्माण्ड का अंत” के प्रमुख घटक ब्रह्माण्ड का स्वरुप, उसकी उत्पत्ति, समय, अंतराल, श्याम ऊर्जा, अंतरिक्ष की वक्रता और क्रांतिक घनत्व हैं।

ब्रह्माण्ड का स्वरुप : यह एक ऐसा महत्वपूर्ण कारक और घटक है। जो ब्रह्माण्ड के अन्य घटकों पर प्रभावी होता है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हम सभी किसी न किसी रूप में (पिंड, निकाय या निर्देशित तंत्र) ब्रह्माण्ड के अवयव हैं। तब इतना तो तय है कि हम ब्रह्माण्ड के स्वरुप को नहीं जान सकते। यह ठीक वैसे ही होता है जब हम यह सोचते हैं कि कोई कमरा अंदर से आयताकार है। तो वह बाहर से भी आयताकार होगा ! परन्तु बाहर से देखने पर वह गोलाकार भी हो सकता है। परन्तु ब्रह्माण्ड के स्वरुप को जानने के लिए हम कोशिश करते रहते हैं। जैसे कि हमने कुछ पंक्तियाँ पहले ही लिखा है कि ब्रह्माण्ड का स्वरुप अन्य घटकों पर प्रभाव डालता है। और हम इन्ही प्रभावों को समझ कर यह दावा करते हैं कि हम ब्रह्माण्ड के स्वरुप से परिचित हो रहे हैं। और इस तरह ब्रह्माण्ड का स्वरुप बहुत सी संकल्पनाओं को जन्म देता है। जिसमे से “ब्रह्माण्ड के समूह” यानि कि एक से अधिक ब्रह्माण्ड की संकल्पना प्रमुख है। जो इस बात पर टिकी हुई है कि इन सभी ब्रह्माण्ड में अलग-अलग नियम कार्यरत होते हैं। परन्तु क्या इन ब्रह्माण्ड में से किसी एक ब्रह्माण्ड का सम्बन्ध किसी अन्य दूसरे ब्रह्माण्ड से हो सकता है या नहीं ? यह चर्चा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि क्या एक ब्रह्माण्ड किसी अन्य दूसरे ब्रह्माण्ड में बाह्य कारक के रूप में बल आरोपित कर सकता है या नहीं ? इस स्थिति में ब्रह्माण्ड के अंत के परिदृश्यों की संख्या और अधिक हो जाएगी। परन्तु जब हम इन्ही चार परिदृश्यों को लेकर ब्रह्माण्ड के स्वरुप पर चर्चा करते हैं। तो हम यह पाते हैं कि महा-संकुचन और महाद्रव की अवस्था ब्रह्माण्ड के स्वरुप को एकीकृत रूप में परिभाषित करती है। और इन दोनों परिदृश्यों में सीमितता की चर्चा होती है। परन्तु दोनों परिदृश्यों में सीमितता का अर्थ भिन्न-भिन्न निकलता है। जबकि महा-विच्छेद और महा-शीतलन दोनों परिदृश्यों में ब्रह्माण्ड असीम प्रतीत होता है।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति : विज्ञान में वर्तमान, भूतकाल और भविष्यकाल जैसी कोई चीज नहीं होती है। वास्तव में यह ब्रह्माण्ड की अवस्था को निरूपित करता है। जो इस बात को दर्शाता है कि अभी विस्तार हो रहा है या फिर संकुचन हो रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो संरचना में बाह्य बल प्रभावी है या फिर आंतरिक बल प्रभावी है। physics3समय की ये तीनों अवस्थाएँ एक दूसरे के सापेक्ष होती है। आइये जानते हैं कि वो कैसे ? ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के साथ ही समय और अंतराल अस्तित्व में आए। समय के सापेक्ष ब्रह्माण्ड में अंतराल में होने वाली वृद्धि भूतकाल को कम अंतराल के रूप में और भविष्यकाल को अधिक अंतराल के रूप में दर्शाती है। जबकि अंतराल में आने वाली कमी भूतकाल को अधिक अंतराल के रूप में और भविष्यकाल को कम अंतराल के रूप में दर्शाती है। ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति उसके स्वरुप को समझने में सहायता प्रदान करती है कि ब्रह्माण्ड अतिसूक्ष्म रूप से विस्तार करते हुए अस्तित्व में आया है ? या फिर ब्रह्माण्ड एक बिंदु के रूप में केंद्रित था। जो असममित स्थिति उत्पन्न होने के कारण अस्तित्व में आया है ? महा-संकुचन (महा-उछाल), महा-विच्छेद और महा-शीतलन तीनों परिदृश्य महा-विस्फोट के समय में ब्रह्माण्ड को एक बिंदु के रूप में दर्शाते हैं जबकि महाद्रव अवस्था के अनुसार महाविस्फोट के समय ब्रह्माण्ड का स्वरुप सममित अवस्था को दर्शाता है। जब कभी ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई रही होगी। उस स्थिति से वर्तमान तक पहुँचने में ब्रह्माण्ड जिन परिस्थितियों से गुजरा है उसका रास्ता छोटा था या फिर लम्बा था। इस बात से यह निर्धारित होता है कि ब्रह्माण्ड का स्वरुप कैसा है ? और उसका अंत कैसे होगा ! यदि वर्तमान को पाने में ब्रह्माण्ड को कम समय लगा है यानि कि ब्रह्माण्ड का अंत महा-संकुचन (पतन) के रूप में होगा। ठीक इसी क्रम में महा-शीतलन और महा-विच्छेद के परिदृश्य में महा-संकुचन के सापेक्ष ब्रह्माण्ड को वर्तमान तक पहुँचने में अधिक समय लगता है।

1दूसरे शब्दों में यदि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति आज से लगभग 6 अरब वर्ष पूर्व हुई है तो ब्रह्माण्ड का अंत संकुचन (पतन) द्वारा होगा। और यदि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति आज से लगभग 9 अरब वर्ष पहले हुई है तो ब्रह्माण्ड के अंत के बारे में कहना मुश्किल है। और यदि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति लगभग 12 या 14 अरब वर्ष पहले हुई है तो क्रमशः ब्रह्माण्ड का अंत शीतलन या विच्छेद के रूप में होता है। जैसे की आपने देखा कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का समय यह निर्धारित करता है कि ब्रह्माण्ड का स्वरुप कैसा है ? ठीक उसी तरह से अन्य घटक भी यह निर्धारित करते हैं कि ब्रह्माण्ड का स्वरुप कैसा है और उसका अंत कैसे हो ! आपको सभी घटकों का अध्ययन करते समय साथ ही साथ यह भी समझना होता है कि ब्रह्माण्ड की नियति के चारों परिदृश्य सभी घटकों के साथ अपना भिन्न-भिन्न संगत संबंध रखते हैं। ये चारों परिदृश्य कहीं से कहीं तक एक दूसरे को अभिव्याप्त (Overlap) नहीं करते हैं।

समय : आपने ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्माण्ड के अंत के परिदृश्यों को थोड़ा बहुत समझा है। और जाना कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कब हुई है ? का उत्तर ब्रह्माण्ड के अंत को निर्धारित करता है जो समय और अंतराल की उत्पत्ति के रूप में यह बतलाता है कि ब्रह्माण्ड को वर्तमान अवस्था तक पहुँचने में कितना समय लगा है यानि कि ब्रह्माण्ड के विस्तार (दूसरे शब्दों में अंतराल में वृद्धि) की दर क्या थी ? यदि आज के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के समय अधिक थी। 4यानि कि हम महा-संकुचन परिदृश्य या सैद्धांतिक रूप से आइंस्टीन के मानक नमूने की संगत परिस्थितियों के बारे में चर्चा कर रहे हैं। और आइंस्टीन का यह मानक नमूना खुले ब्रह्माण्ड का समर्थक है। महा-संकुचन के परिदृश्य के अनुसार नियत समय पर ब्रह्माण्ड का पतन होता है और आइंस्टीन के मानक नमूने के अनुसार ब्रह्माण्ड का अंत अनिश्चित काल तक लगातार विस्तार होते हुए होता है। महा-संकुचन में विस्तार की दर नकारात्मक यानि कि मंदन प्रारम्भ हो जाता है जबकि आइंस्टीन के मानक नमूने के अनुसार विस्तार की दर न्यूनतम होने लगती है। यदि ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के समय से अब तक एक समान बनी हुई है तो इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्माण्ड का अंत अनंत (अधिकतम) समय के साथ महा-विच्छेद परिदृश्य के रूप में होगा। जबकि यदि आज के परिप्रेक्ष्य में ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के समय कम थी। तो ब्रह्माण्ड का अंत महा-शीतलन परिदृश्य के अंतर्गत सीमित समय के साथ होगा। महाद्रव अवस्था के अनुसार ब्रह्माण्ड का अंत अनिश्चित है। तात्पर्य हिग्स-बोसोन कण के द्वारा एक विशेष परिमाण को प्राप्त हो जाने के साथ ही ब्रह्माण्ड का अंत शुरू हो जाएगा और ब्रह्माण्ड के अंत होने की गति प्रकाश के वेग के समान होगी।

अंतराल : अभी तक हमने देखा कि ब्रह्माण्ड का अंत कितने समय पर ब्रह्माण्ड के विस्तार की किस दर के कारण होता है। अब हम यह जानने की भी कोशिश करेंगे कि ब्रह्माण्ड के अंत में अंतराल का क्या महत्व होता है ? दूसरे शब्दों में समय के साथ-साथ अंतराल में क्या-क्या परिवर्तन आते हैं ? और ये परिवर्तन कैसे ब्रह्माण्ड का अंत कर सकते हैं ? जैसा कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के साथ ही समय के रूप में अंतराल का विस्तार होता है उसी तरह से पुनः अंतराल में कमी (पतन) आने से भी ब्रह्माण्ड का अंत हो सकता है। इस परिदृश्य को हम महा-संकुचन कहते हैं। महा-संकुचन परिदृश्य में विस्तार के समय मंदन होता है और संकुचन के समय त्वरण उत्पन्न होता है। 2महा-शीतलन परिदृश्य के अंतर्गत मंदाकिनियों के मध्य की दूरी लगातार बढ़ने से ब्रह्माण्ड का अंत होगा। इस परिदृश्य में हब्बल के मंदाकिनियों का प्रतिसरण का नियम लागू होता है। जिसके अनुसार जो मंदाकिनी किसी अन्य मंदाकिनी से जितनी अधिक दूरी पर स्थित रहती है वह उतनी ही गति से उससे दूर जाती है। जबकि महा-विच्छेद परिदृश्य के अंतर्गत परमाणु और उसके अवयवों के मध्य भी अंतराल बढ़ या बन जाता है। जिससे कि प्रत्येक अवयव का स्वतंत्र रूप में होने से ब्रह्माण्ड का अंत होता है। महाद्रव अवस्था के अंतर्गत ब्रह्माण्ड का अंत पुनः सममित अवस्था को पाने से होगा। इस परिदृश्य के अनुसार ब्रह्माण्ड का अंत अपनी संहति (द्रव्यमान) खो देने के रूप में होगा। जैसा कि हम सभी जानते भी हैं कि द्रव्यमान स्थान घेरता है। ब्रह्माण्ड संहति खो देने से उसके क्षेत्र (स्थान) को भी खो देगा। और हमें मजबूरन कहना पड़ेगा कि ब्रह्माण्ड अब अस्तित्व में नही रहा !

श्याम ऊर्जा : श्याम ऊर्जा बाह्य कारक के रूप में अंतराल में वृद्धि करते हुए ब्रह्माण्ड का विस्तार करती है। वैज्ञानिक आज तक श्याम ऊर्जा को पूर्णतः नहीं समझ पाएं हैं। जिसके बहुत से कारण है। परन्तु इस ऊर्जा को अव्यवस्था की माप (एन्ट्रापी ऊर्जा) के रूप में ब्रह्माण्ड का एक महत्वपूर्ण घटक माना जाता है। जो गुरुत्वाकर्षण बल पर भी प्रभावी हो सकता है। महा-संकुचन के परिदृश्य के अंतर्गत ब्रह्माण्ड का संकुचन तो हो सकता है क्योंकि श्याम ऊर्जा संकुचन के लिए संगत होती है। किन्तु हम ब्रह्माण्ड के स्वरुप को दोलित ब्रह्माण्ड के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते हैं। क्योंकि इस स्वरुप के लिए श्याम ऊर्जा संगत परिस्थिति के रूप में कार्यरत नहीं रहती। 3और यह ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम के खिलाफ भी होता है। ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम ऊर्जा के प्रवाह की दिशा को दर्शाता है। जिसके अनुसार भूतकाल में ब्रह्माण्ड कम आयतन के रूप में छोटा था। और भविष्य में ब्रह्माण्ड एक सीमा तक आयतन में वृद्धि करेगा और पुनः अपनी महा-विस्फोट की स्थिति में पहुँच जाएगा। यानि कि पुनः संकुचित हो जाएगा। परन्तु उष्मागतिकी के द्वितीय नियम के अनुसार ब्रह्माण्ड स्वतः निम्नतापीय तंत्र से उच्चतापीय तंत्र में परिवर्तित नहीं हो सकता है। तात्पर्य जिस तरह से हमने ऊपर इस बात की सम्भावना जताई थी कि हो सकता है कि यह ब्रह्माण्ड भी किसी अन्य ब्रह्माण्ड के पतन के पश्चात् ही संकुचन के परिणाम स्वरुप अस्तित्व में आया हो। ऐसा हो नहीं सकता। श्याम ऊर्जा ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर को अंतराल में वृद्धि की दर को निश्चित करके निर्धारित करती है। महा-संकुचन के परिदृश्य में श्याम ऊर्जा गुरुत्वाकर्षण बल पर प्रभावी नहीं हो पाती है। फलस्वरूप ब्रह्माण्ड का अंत संकुचन (पतन) के रूप में होता है। महा-शीतलन के परिदृश्य में श्याम ऊर्जा की दर अचानक से बढ़ती है। परिणाम स्वरुप श्याम ऊर्जा अपना प्रभाव सिर्फ अंतराल में ही डाल पाती है। इस प्रभाव से गुरुत्वाकर्षण बल अछूता रह जाता है। जिससे कि ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर भी अचानक से बढ़ती है और मंदाकिनियों के मध्य की दूरी बढ़ने से एक मंदाकिनी का सम्बन्ध दूसरी मंदाकिनी से नहीं हो पाता है। और ब्रह्माण्ड के ताप में आने वाली कमी (परम शून्य तापमान की स्थिति) ब्रह्माण्ड का अंत कर देती है। वहीं दूसरी ओर महा-विच्छेद के परिदृश्य में श्याम ऊर्जा की दर एक समान (नियत) बनी रहती है। फलस्वरूप श्याम ऊर्जा ब्रह्माण्ड के गुरुत्वाकर्षण बल पर प्रभावी हो जाती है। और ब्रह्माण्ड का अंत व्यापक स्तर के गुरुत्वाकर्षण बल से निम्नतर स्तर के गुरुत्वाकर्षण बल की ओर होता है। इस तरह का विनाश भले ही एक ही समय पर चारों ओर एक समान न होता हो। परन्तु यह विनाश परमाणु तक को अपने अवयवों में विखंडित कर देता है। यानि कि प्रत्येक मूल अवयव के स्वतंत्र अवस्था के टूटने तक ब्रह्माण्ड में श्याम ऊर्जा का प्रवाह होता रहता है। और इस परिदृश्य के अनुसार श्याम ऊर्जा की इस अवस्था में दोबारा परिवर्तन नहीं होता है।

अंतरिक्ष की वक्रता : अंतरिक्ष की वक्रता को ब्रह्माण्ड का स्वरुप नहीं कहा जा सकता। भले ही अंतरिक्ष की वक्रता ब्रह्माण्ड के स्वरुप को समझने में हमारी मदद करती हो। अंतरिक्ष की वक्रता धनात्मक, ऋणात्मक या शून्य हो सकती है। अंतरिक्ष की वक्रता ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व, श्याम ऊर्जा, गर्म धब्बे (Hot Spots) और गुरुत्वाकर्षण बल आदि से संबंध रखती है। अंतरिक्ष की वक्रता ही हमको यह बतलाती है कि ब्रह्माण्ड खुला, बंद या समतल है ! ब्रह्माण्ड का खुला, बंद या समतल होना ब्रह्माण्ड के स्वरुप की सम्भावनाओं को निर्धारित करने में हमें सहयोग प्रदान करता है। अंतरिक्ष की धनात्मक वक्रता बंद ब्रह्माण्ड के रूप में महा-संकुचन के परिदृश्य को उजागर करती है। जबकि अंतरिक्ष की ऋणात्मक वक्रता खुले ब्रह्माण्ड के रूप में महा-विच्छेद और महा-शीतलन के परिदृश्य को उजागर करती है। और अंतरिक्ष की शून्य वक्रता ब्रह्माण्ड को समतल रूप में अनिश्चित समय पर ब्रह्माण्ड के अंत का परिदृश्य महाद्रव-अवस्था के समान उजागर करती है। अंतरिक्ष की वक्रता का सीधा संबंध गुरुत्वाकर्षण बल से होता है। बंद ब्रह्माण्ड में गुरुत्वाकर्षण बल ब्रह्माण्ड के विस्तार को मंदित करने में सक्षम होता है। और अंततः गुरुत्वाकर्षण बल ब्रह्माण्ड के पतन का कारण बनता है। 0खुले ब्रह्माण्ड में गुरुत्वाकर्षण बल ब्रह्माण्ड के विस्तार को रोकने में सक्षम नहीं होता है। और हमेशा के लिए ब्रह्माण्ड का लगातार विस्तार होता रहता है। यद्यपि ब्रह्माण्ड के विस्तार की यह दर महा-शीतलन परिदृश्य में कम होती है। समतल ब्रह्माण्ड में गुरुत्वाकर्षण बल कार्यरत तो अवश्य होता है परन्तु प्रभावी नहीं हो पाता। यानि कि ब्रह्माण्ड के विस्तार की दर में कमी अवश्य आती है परन्तु ब्रह्माण्ड लगातार कम दर से विस्तार करता रहता है।

5.

क्रांतिक घनत्व : क्रांतिक मान ताप, दाब, आयतन, कोण अथवा घनत्व आदि.. की वह सीमा है जिस मान पर कोई पिन्ड, निकाय अथवा निर्देशित तंत्र अपनी प्रकृति को खो देता है। क्रांतिक मान कहलाता है। क्रांतिक सीमा न्यूनतम और अधिकतम दोनों मान के लिए हो सकती है। अब हम क्रांतिक घनत्व की चर्चा घटक के रूप में करेंगे। क्रांतिक घनत्व ब्रह्माण्ड के घनत्व का एक सैद्धांतिक मान है। जो यह तय करने में सहायता प्रदान करता है कि अंतरिक्ष में कौन सी वक्रता है। यानि कि जब क्रांतिक घनत्व का मान ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व के मान से कम होता है तो वक्रता धनात्मक होती है। और जब क्रांतिक घनत्व का मान ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व के मान से अधिक होता है तो वक्रता ऋणात्मक होती है। परन्तु जब क्रांतिक घनत्व का मान ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व के मान के बराबर होता है तो वक्रता शून्य होती है। इस तरह क्रांतिक घनत्व और अंतरिक्ष की वक्रता संगत परिस्थितियों के रूप में जान पड़ती हैं। ब्रह्माण्ड के विस्तार को रोकने के लिए आवश्यक द्रव्य के औसतन घनत्व को क्रांतिक घनत्व कहते हैं। किन्तु इस स्थिति के लगातार बने रहने से ब्रह्माण्ड का अंत अंतरिक्ष की वक्रता खो देने के साथ ही समतल अंतरिक्ष के रूप में होता है। जिसे आइंस्टीन का मानक नमूना कहा जाता है। आइंस्टीन के साधारण सापेक्षता के सिद्धांत के अनुसार क्रांतिक घनत्व द्रव्य के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण अंतरिक्ष में आई वक्रता, ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण द्रव्य की ज्यामिति संरचना और ब्रह्माण्ड की नियति को निर्धारित करता है। ब्रह्माण्ड के लिए क्रांतिक घनत्व का मान लगभग 9.47 x 10-27 कि.ग्रा./मी.3 (या 10 हाइड्रोजन परमाणु प्रति घन मीटर) होता है। जैसा कि ब्रह्माण्ड का क्रांतिक घनत्व = वास्तविक घनत्व / क्रांतिक घनत्व
क्रांतिक घनत्व के मान को हम सैद्धांतिक रूप से निम्न सूत्र (क्रांतिक घनत्व = 3H2 / 8PiG) द्वारा ज्ञात कर सकते हैं परन्तु ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व को मापने के लिए मूल रूप से दो विधियों का उपयोग किया जाता है।
1. अनुमानित विधि : ब्रह्माण्ड के किसी एक भाग के चयनित आयतन का द्रव्यमान जिसका एक ही प्रयास में आंकलित अनुमान लगाया जा सकता है, को सीधे उस आयतन के द्रव्यमान के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। या तो यह अनुमान मंदाकिनियों के गुच्छों की गतियों के गतिज गुणों की माप को ज्ञात करके लगाया जाता है। या फिर मंदाकिनियों के आयतन का संबंध उससे आने वाले प्रकाश की तीव्रता से जोड़कर अप्रत्यक्ष रूप से ज्ञात किया जाता है। मंदाकिनियों और उसके आसपास मौजूद श्याम पदार्थ के ज्ञान को इस अप्रत्यक्ष विधि में अनदेखा कर दिया जाता है। हालाँकि अभी भी इस तकनीक का उपयोग आने वाले प्रकाश की तीव्रता और श्याम ऊर्जा के अनुपात को त्रुटि के रूप में उचित अवधारणा के साथ एक चयनित आयतन के द्रव्यमान को ज्ञात करने के लिए किया जाता है।
2. ज्यामितीय दृष्टिकोण : यह विधि अंतरिक्ष की वक्रता के संगत परिस्थितियों के रूप में उपयोग में लाई जाती है। इस विधि के द्वारा केवल यह ज्ञात किया जा सकता है कि ब्रह्माण्ड का वास्तविक घनत्व क्रांतिक घनत्व से कम है या अधिक है या फिर बराबर है। इस विधि के द्वारा वास्तविक घनत्व के मान को ज्ञात नहीं किया जा सकता है। 6इस विधि के अनुसार यदि दो समांतर रेखाएँ आंगे चलकर अभिसारी रेखाओं के समान व्यव्हार करती हैं तो ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व को क्रांतिक घनत्व के मान से अधिक माना जाता है। क्योंकि दूरस्थ आकाशगंगाओं के प्रेक्षित घनत्व का मान उसकी स्थानीय पीछे की ओर की आकाशगंगा के आपेक्षित घनत्व के मान से कम होता है। परन्तु जब दो समांतर रेखाएँ आंगे चलकर अपसारी रेखाओं के समान व्यव्हार करती हैं। तो ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व को क्रांतिक घनत्व के मान से कम माना जाता है। क्योंकि दूरस्थ आकाशगंगाओं के प्रेक्षित घनत्व का मान उसकी स्थानीय पीछे की ओर की आकाशगंगा के आपेक्षित घनत्व के मान से अधिक होता है।

इन दोनों तकनीक का उपयोग करके हम संगत परिस्थिति के रूप में ब्रह्माण्ड के वास्तविक घनत्व को ज्ञात कर पाते हैं। परन्तु कभी-कभी आश्चर्य रूप से हमें जो आंकड़े प्राप्त हुए हैं। वो इस ओर इशारा करते हैं कि ब्रह्माण्ड का अंत महाद्रव-अवस्था के परिदृश्य के समान होगा। क्योंकि ब्रह्माण्ड में श्याम ऊर्जा के प्रभाव में मंदन देखा गया है। जो इस ओर इशारा करता है कि ब्रह्माण्ड लगभग समतल अंतरिक्ष में स्थित है।E(9)
अब यदि वास्तविक घनत्व के मान और सैद्धांतिक घनत्व (क्रांतिक घनत्व) के मान का अनुपात एक से अधिक प्राप्त होता है। तो ब्रह्माण्ड का पतन महा-संकुचन के परिदृश्य के समान होगा। यदि वास्तविक घनत्व के मान और क्रांतिक घनत्व के मान का अनुपात एक से कम प्राप्त होता है। तो ब्रह्माण्ड का अंत महा-विच्छेद या महा-शीतलन के परिदृश्य के समान होगा। महा-विच्छेद और महा-शीतलन के परिदृश्य में ब्रह्माण्ड के क्रांतिक घनत्व का मान एक से तो कम प्राप्त होता है परन्तु दोनों के मानों में अंतर पाया जाता है। और यदि ब्रह्माण्ड के क्रांतिक घनत्व का मान एक के बराबर पाया जाता है। तो ब्रह्माण्ड का अंत महाद्रव-अवस्था के परिदृश्य के समान होगा। वर्तमान में ज्ञात ब्रह्माण्ड के क्रांतिक घनत्व का मान Ω0 = 1.02 +/- 0.02 है। अर्थात ज्ञात ब्रह्माण्ड का स्वरुप बंद ब्रह्माण्ड के परिदृश्य के समान प्रतीत होता है। 5    जिसे ब्रह्माण्ड के कुल घनत्व के तीनों प्राचल (Parameter) के योग के रूप में पाया गया है। ब्रह्माण्ड के कुल घनत्व के ये तीनों प्राचल निम्न लिखित हैं। पहला : सामान्य और श्याम पदार्थ का द्रव्यमान घनत्व, दूसरा : प्रकाश और न्युट्रीनो जैसे कणों का प्रभावी द्रव्यमान घनत्व और तीसरा : अंतरिक्ष नियतांक के रूप में कार्यरत श्याम ऊर्जा का प्रभावी द्रव्यमान घनत्व

भौतिकी का नोबेल : ईश्वरीय कण के नाम


भौतिकी का 2013 का नोबेल पुरुस्कार संयुक्त रूप से दो वैज्ञानिकों (फ्रेंकोइस इंग्लर्ट और पीटर डब्लू हिग्स) को दिया गया है। नोबेल समिति द्वारा सिर्फ सैद्धांतिक विज्ञान पर किये गए कार्यों को नोबेल पुरुस्कार नहीं दिए जाते। फ्रेंकोइस इंग्लर्ट व स्वर्गीय रोबर्ट ब्राउट की जोड़ी तथा पीटर डब्लू हिग्स ने 1964 में स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए सैद्धांतिक रूप से प्रतिपादित किया था कि उत्पन्न होने वाले कोई कण हिग्स बोसोन कणों द्वारा कैसे द्रव्यमान ग्रहण करते हैं ? सर्न के लार्ज हैड्रान कोलाइडर पर एटलस संसूचक और सीएमएस संसूचक प्रयोगों के आधार पर 4 जुलाई 2012 को इस बात की पुष्टि की गई कि परमाणु के मानक मॉडल में हिग्स बोसोन कणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। और मौलिक कणों की खोज के माध्यम से सर्न ने यह भविष्यवाणी भी की। कि सम्भवतः हिग्स बोसोन कण खोज लिए गए हैं। और उपपरमाणु जैसे मूलकणों को द्रव्यमान देने का श्रेय हिग्स बोसोन कणों को जाता है। तब से इस खोज पर किये गए कार्यों को नोबेल से नवाजे जाने की अटकलें समाप्त हो गईं। इंतज़ाऱ था तो पुरुस्कार की औपचारिक घोषणा का और अंततः 2013 का नोबेल पुरुस्कार संयुक्त रूप से फ्रेंकोइस इंग्लर्ट और पीटर डब्लू हिग्स को “उप-परमाणु कणों के द्रव्यमान की उत्पत्ति” के बारे में हमारी समझ विकसित करने में योगदान देने के लिए दिया गया है। जबकि नोबेल पुरुस्कार मरोपरान्त नहीं दिया जाता है इसलिए स्वर्गीय रोबर्ट ब्राउट को इस पुरुस्कार से नहीं नवाजा गया।

52यह सच है कि हिग्स-बोसोन कण को ईश्वरीय कण के नाम से पुकारा जाता रहा है। परन्तु यह कण न तो ईश्वर है और न ही उस ईश्वर का अंश है। जब तक विज्ञान ईश्वर को खोज नहीं लेता। तब तक हिग्स-बोसोन कण को ईश्वरीय कण कहना अनुचित होगा। एक समय था जब स्वयं पीटर डब्लू हिग्स को हिग्स-बोसोन कण की खोज को लेकर संशय था। उस समय यह कण एक अवधारणा बनकर सामने आया था। जिसका अस्तित्व सैद्धांतिक रूप से परमाणु के मानक प्रतिमान (मॉडल) को समझने के लिए आवश्यक था। हिग्स-बोसोन कण की खोज हमारी समझ को इस तरह विकसित करने में सहयोग देती है कि कैसे गिने-चुने कुछ निर्मात्री पदार्थ कणों से यह ब्रह्माण्ड बना हुआ है ! ये पदार्थ कण कुछ बल कणों के माध्यम से उत्पन्न बलों द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसलिए सृष्टि में सब कुछ वैसे ही घटित होता है। जैसा उसे होना चाहिए। हिग्स-बोसोन कणों का सीधा सम्बन्ध अदृश्य पदार्थों से है। हम जो कुछ देखते हैं वह सब दृश्य पदार्थ है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का केवल 5 % भाग (लगभग) दृश्य पदार्थ, 27 % भाग अदृश्य पदार्थ और लगभग 68 % भाग अदृश्य ऊर्जा से निर्मित है। कुल पदार्थ का लगभग 15 % भाग दृश्य पदार्थ है। गुरुत्वाकर्षण द्वारा मंदाकिनियों में होने वाले खिचाव को अदृश्य पदार्थ के रूप में देखा और मापा जाता है। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि हिग्स-बोसोन कण अदृश्य पदार्थ से दृश्य पदार्थ का सम्बन्ध स्थापित करने में सहयोग करते हैं। इसलिए हिग्स-बोसोन कण हमारे लिए कुछ ज्यादा ही विशेष है।

पदार्थों के कणों की तरह बलों के भी कण होते हैं। वर्तमान में हम चार प्राकृतिक बल गुरुत्वाकर्षण, विद्युत-चुंबकीय, नाभिकीय क्षीण और नाभिकीय तीव्र बल से परिचित हैं। इन चारों बलों के अलग-अलग बलवाहक कण होते हैं। गुरुत्वाकर्षण और विद्युत-चुंबकीय बल वस्तुओं को आकर्षित या प्रतिकर्षित करते हैं। जबकि नाभिकीय क्षीण और नाभिकीय तीव्र बल परमाणु में संतुलन बनाए रखते हैं। फलस्वरूप हम गुरुत्वाकर्षण और विद्युत-चुंबकीय बल द्वारा सम्बंधित घटनाओं को देख सकते हैं। और परमाणु की आंतरिक घटनाओं को नहीं देख सकते। नाभिकीय तीव्र बल परमाणु के नाभिक में कार्यरत होता है। यह क्वार्क (उपपरमाणु कण) पर आरोपित रहकर न्यूट्रॉन और प्रोट्रॉन को केन्द्र में बांधे रखता है। इसी प्रकार नाभिकीय क्षीण बल परमाणु में इलेक्ट्रानों को बांधे रखता है। चूँकि परमाणुवीय धरातल पर गुरुत्वाकर्षण बल कार्य नहीं करता है। इसलिए कणीय भौतिकी में सिर्फ तीनों बलों (विद्युत-चुंबकीय, नाभिकीय क्षीण और नाभिकीय तीव्र बल) का अध्ययन किया जाता है। बलों से सम्बंधित एक प्रश्न हमेशा से वैज्ञानिकों को उलझाए रखता था कि चुम्बक को पास में रखे लोहे का पता कैसे चल जाता है ? या चंद्रमा को परिक्रमण गति करती हुई पृथ्वी के पाथ की जानकारी कैसे लगती है ? उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर देने हेतु भौतिकी कहती है कि यह स्पेस कई प्रकार के अदृश्य बल क्षेत्रों से भरा पड़ा है। जैसे कि गुरुत्वाकर्षण बल क्षेत्र, विद्युत-चुंबकीय बल क्षेत्र और क्वार्क बल क्षेत्र आदि..

physics3क्षेत्र दो प्रकार के होते हैं – पहला पदार्थ क्षेत्र (जो द्रव्य रूप में स्थान घेरता है) और दूसरा बल क्षेत्र (जिसमें क्वांटा स्वतंत्र रूप से कम्पन्न करते हैं)। बल क्षेत्र, बल कणों के माध्यम से कार्य करता है। हिग्स-बोसोन कण भी बल वाहक कण है। जो हिग्स-क्षेत्र के कम्पन्न हैं। हिग्स क्षेत्र वह अदृश्य बल का क्षेत्र है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैला हुआ है। इस क्षेत्र के आभाव में क्वार्क और इलेक्ट्रान कण भी फ़ोटोन (प्रकाश कण) की तरह द्रव्यमान रहित होते। और खुले अंतरिक्ष में प्रकाश की गति से गतिशील होते। इस प्रकार क्वांटम क्षेत्र सिद्धांत अनन्ता का प्रभाव लाता। और जिसमें सममितता का आभाव होता। जो ज्ञात तथ्यों के विपरीत की परिस्थिति होती। इंग्लर्ट और हिग्स ने सर्वप्रथम हिग्स क्षेत्र के बारे में यह बतलाया कि यह क्षेत्र पूर्व में ज्ञात परमाणु के मानक नमूने के प्रति हमारी सोच में बदलाव किये बिना सममितता की चर्चा का अंत करता है। यानि कि परमाणु में हिग्स क्षेत्र के प्रभाव से सममितता के होने या न होने का कोई अर्थ नहीं बचता। हिग्स (बल) क्षेत्र अन्य क्षेत्रों से अलग प्रकार का है। इस क्षेत्र में ऊर्जा की कमी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जबकि अन्य क्षेत्रों में ऊर्जा की कमी से क्षेत्र की तीव्रता शून्य भी हो सकती है। किसी कण का द्रव्यमान (संहति) हिग्स क्षेत्र से अन्तः क्रिया के समानुपाती होता है। इसलिए इलेक्ट्रान कण (9.10938291(40)×10-31 कि.ग्रा.) सर्वाधिक द्रव्यमान ग्रहण कर परमाणु और अणुओं के निर्माण में सर्वाधिक भूमिका निभाते हैं। आइंस्टीन के विशेष सापेक्षता के दिक्-काल तथा पदार्थ और ऊर्जा संरक्षण के नियम के लिए सममितता के अस्तित्व का होना जरुरी है। इसलिए नोबेल पुरुस्कृत कार्यविधि सममितता के अस्तित्व को इस प्रकार स्वीकारती है कि वह कभी प्रगट न हो ! सृष्टि की उत्पत्ति के वक्त सृष्टि सममित थी। महाविस्फोट के समय सभी कण द्रव्यमान रहित और सभी बल केंद्रित थे। यह मूल स्थिति कुछ समय तक रह सकी। कुछ कारण वश महाविस्फोट के 10-11 सेकंड बाद सममितता ओझल हो गई। हिग्स क्षेत्र ने अपने स्वाभाविक संतुलन को खो दिया। और यह आज भी शोध का विषय है कि यह कैसे हुआ ? सममितता तो आज भी कायम है मगर वह केंद्र पर नहीं ठहरती। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हिग्स क्षेत्र ने अपनी सममितता को तोड़कर शून्य में किसी स्थिर ऊर्जा स्तर को पा लिया था।

1954 में यूरोपीय परमाणु अनुसंधान परिषद (सर्न) द्वारा लार्ज हेड्रोन कोलाइडर के रूप में विश्व की विशालतम मशीन की स्थापना की गई। यह मशीन दो संसूचकों (एटलस और सीएमएस) से निर्मित है। जिसके अवलोकन के लिए लगभग 3000 वैज्ञानिक कार्यरत हैं। इस 27 कि. मी. माप के वृत्ताकार त्वरित्र में परमाणुवीय कणों (प्रोटोनों की धाराएँ) को प्रत्येक 10 घंटे के अंतराल में दोनों सिरों से विपरीत दिशाओं में दौड़ाकर टकराने के लिए प्रेरित किया जाता है। समान मात्रा और समान आवेश (धनात्मक) के प्रोटानों को अपने मन माफिक उपयोग में लाना मुश्किल होता है। इस प्रयोग का उद्देश मात्र टक्कर से निर्मित टुकङों का अध्ययन करना नहीं है। इस विवित्र टक्कर में नए प्रकार के कण भी उत्पन्न होते हैं। क्योंकि ऊर्जा का एक हिस्सा द्रव्यमान में परिवर्तित होता है। जब उच्च ऊर्जा के ग्लूकोन आपस में टकराते हैं तो एक हिग्स बोसोन कण उत्पन्न होता है। 125 गीगा वोल्ट पर एक हिग्स कण बनता है। हिग्स बोसोन कण प्रोटॉन की तुलना में 100 गुना अधिक द्रव्यमान रखता है। इसी कारण हिग्स बोसोन कण को उत्पन्न करना कठिन कार्य है।

लार्ज हैड्रान कोलाइडर (महाप्रयोग) के उद्देश :

  1. 8 टेराइलेक्ट्रोवोल्ट पैमाने की सीमा तक भौतिकी खोजना।
  2. हिग्स बोसॉन कण का अध्ययन करना।
  3. परमाणु के मानक प्रतिमान (मॉडल) में अतिसममिति और अधिविमा से सम्बन्धित भौतिकी को खोजना।
  4. भारी आयन के संघट्ट से सम्बंधित सभी पहलुओं का अध्ययन करना।
फ़ोटो में : एटलस संसूचक में चार म्युऑंस (लाल) चिन्हों द्वारा यह सम्भावना जताई गई है कि यह रचित अल्पकालिक हिग्स-बोसोन कण का क्षय है।
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फ़ोटो में : सीएमएस संसूचक में दो हरे चिन्हों द्वारा यह सम्भावना जताई गई है कि हिग्स-बोसोन कण की रचना और उसका क्षय दो फोटॉनों के रूप में होता है।

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भले ही हिग्स-बोसोन कण ब्रह्माण्ड की पहेली का अंतिम उत्तर न हो। परन्तु उसकी खोज ने परमाणु के मानक नमूने की पहेली को सुलझा दिया है। आइंस्टीन के द्रव्य-ऊर्जा तुल्यता के समीकरण के अनुरूप हमने व्यापक स्तर पर पदार्थ को ऊर्जा में तथा ऊर्जा को पदार्थ में परिवर्तित होते देखा है। परन्तु इस बार वैज्ञानिकों का प्रयास “निम्न स्तर की ऊर्जा का पदार्थ में परिवर्तित” होने की घटना का अवलोकन करना है। जिससे कि समय, अंतराल, पदार्थ और ऊर्जा की छोटी से छोटी इकाई को और अधिक स्पष्टता के साथ समझा जा सके। इसी तरह कार्य करते हुए सम्भव है कि किसी दिन वैज्ञानिक लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर में कणों का पीछा करते करते ऐसा कण बना बैठेंगे जो अदृश्य पदार्थ का हिस्सा होगा !

चिकित्सा में नोबेल : कोशिकाओं की भाषा के नाम


चिकित्सा में २०१३ का नोबेल पुरुस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों (डॉ. रैंडी डब्लू. शेकमान, डॉ. जेम्स ए. रोथमन, डॉ. थॉमस सी. सूडाफ) को दिया गया है। आपने पुटिका (फफोला) के आवागमन की मशीनरी विनियमन को, जो कोशिकाओं की प्रमुख परिवहन प्रणाली है को खोज निकाला है। आप तीनों साथ-साथ न होकर भी कोशिकाओं की प्रमुख परिवहन प्रणाली को एक रूप में देखते है। तात्पर्य स्वतंत्र रूप से कार्य करते हुए आप तीनों वैज्ञानिकों ने विज्ञान की अलग-अलग विधियों का प्रयोग करके कोशिकाओं की परिवहन प्रणाली के भिन्न-भिन्न चरणों को एक घटना के रूप में पाया है। आप तीनों की संयुक्त खोज यह दर्शाती है कि प्रकृति इतने सूक्ष्म स्तर पर इतनी दक्षता के साथ परिवहन का कार्य कैसे करती है ?

Medicine Main

मानव जाति हज़ारों सालों से परिवहन का कार्य करती आ रही है। परिवहन के कार्य के लिए आवश्यक है कि निर्धारित लक्ष्य, समय, गंतव्य और निश्चित पाथ का ज्ञात होना। सटीक शब्दों में कहूं तो परिवहन के लिए आवश्यक है एक व्यवस्था का लागू होना। और व्यवस्था को सुचारु रूप से चलायमान रखने के लिए आवश्यक है नियमों का होना। चाहे वे नियम संचार की किसी भी भाषा शैली का उपयोग करते हों। वह भाषा शैली मौखिक, लिखित, सांकेतिक या निर्देशित हो सकती है। वर्तमान  में संचार और परिवहन के साधनों में विकास हुआ है। इस विकास के कारण आज हम पृथ्वी के अलावा अंतरिक्ष स्टेशनों से जुड़े हुए हैं।
आप तीनों नोबेल पुरुस्कार विजेताओं ने कोशिका के भीतर उपस्थित एक कोशिकांग से दूसरे कोशिकांग तथा कोशिका के बाहर से कोशिका के अंदर होने वाले पदार्थ-परिवहन की भाषा से हमें परिचित करवाया है। यह एक बेहतरीन भाषा प्रणाली है जो कोशिकाओं तथा कोशिकांग के बीच बोली और समझी जाती है। यह भाषा कोशिका के केन्द्रीयकरण पर आधारित होती है। यदि किसी कोशिका का पूर्व में केन्द्रीयकरण नहीं हुआ है यानि कि उस कोशिका में पदार्थ-परिवहन कोशिका के अंदर एक कोशिकांग से दूसरे कोशिकांग के मध्य हो रहा है। जिसे सुकेन्द्रकीय कोशिका कहा जाता है। और यदि कोशिका में पदार्थ-परिवहन एक कोशिका से दूसरी कोशिका की ओर हो रहा है यानि कि उस कोशिका का केन्द्रीयकरण पूर्व में ही हो गया है। जिसे पूर्व केन्द्रकीय कोशिका कहा जाता है। जिसकी रचना प्रकृति ने स्वतः करोड़ों वर्ष पूर्व ही कर दी थी। सुनियोजित या नियंत्रित होने की वजह से पूर्व केन्द्रकीय कोशिका की रचना सरल मालूम पड़ती है। इसके विपरीत सुकेन्द्रकीय कोशिका अत्यंत जटिल मालूम होती है। सुकेन्द्रकीय कोशिका को किसी देश की बंद अर्थव्यवस्था और पूर्व केन्द्रकीय कोशिका को किसी देश की खुली अर्थव्यवस्था के रूप में समझा जा सकता है और इस प्रकार पदार्थ-परिवहन की यह प्रणाली निर्देशित भाषा शैली का उपयोग करती है।
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विज्ञान के विकास के साथ ही हमने यह जान लिया था कि कोशिका के अंदर एक कोशिकांग से दूसरे कोशिकांग में तथा एक कोशिका से दूसरे कोशिका में पदार्थों का परिवहन बुलबुले जैसी संरचना के द्वारा होता है। यह बुलबुली संरचना वसीय पदार्थों की भित्ति से ढ़की होती है। प्रत्येक बुलबुली संरचना लगभग ५० नैनोमीटर व्यास की होती है। और यह संरचना मुकुलन की क्रिया से निर्मित होती है। परन्तु इस बुलबुली संरचना वाले पदार्थ का परिवहन सही गंतव्य की ओर सही समय के साथ कैसे होता है ? यह जानना अभी तक शेष था। आप तीनों वैज्ञानिकों के सहयोग से हमने यह जाना है। कि..
  1. डॉ. रैंडी डब्लू. शेकमान ने यीस्ट कोशिकाओं के उन जीनों को खोज निकाला जो कोशिकीय परिवहन का आनुवंशिक आधार तैयार करते हैं। जो जीवन के लिए अति आवश्यक है।
  2. डॉ. जेम्स ए. रोथमन ने जैवरसायनिक विधियों के प्रयोग से उन प्रोटीनों को खोज निकाला है। जो बुलबुली संरचना को किसी कोशिका से जुड़ने की क्रिया में मदद करते हैं। इन्ही प्रोटीनों की सहायता से बुलबुली संरचना का सही भाग कोशिका के सही हिस्से से जुड़ता है।
  3. डॉ. थॉमस सी. सूडाफ ने तंत्रिका विशेषज्ञ होने के नाते कोशिकाओं की निर्देशित शैली की भाषा को समझा। और बतलाया कि कैल्शियम आयन के रूप में संकेत (स्पर्श द्वारा) प्राप्त होने के बाद ही तंत्रिका कोशिका, तंत्रिसंचारियों का प्रवाह प्रारम्भ करती हैं। आपने इस प्रणाली की आण्विक मशीनरी को भी खोज निकाला है जो कैल्शियम आयन के संकेत के रूप में कार्य करती है।
डॉ. रैंडी डब्लू. शेकमान ने साथ ही साथ यह भी बतलाया कि जिन कोशिकाओं में पदार्थ-परिवहन की मशीनरी ठीक तरीके से कार्य नहीं करती है। जिसके कारण पदार्थ परिवहन रुक सा जाता है जिसे अनुवांशिक गुणों का कारण माना गया। और अंततः रैंडी ने उत्परिवर्तित जीन की खोज कर ही ली। रैंडी ने जो जीन यीस्ट में खोजे हैं। रोथमन ने वैसे ही जीन मानव कोशिका में भी पाए हैं। इससे यह पता चलता है कि एक बार विकसित हुई कोशिकीय परिवहन व्यवस्था विकास क्रम के साथ-साथ आगे बढ़ती रही है। नोबेल पुरुस्कार की घोषणा के बाद नए शोधों से वैज्ञानिक यह जानकर हैरान हैं कि डीएनए के जीनोम आनुवांशिक कोड लिखने के लिए दो अलग-अलग तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं। एक से पता चलता है कि प्रोटीन कैसे बना है और दूसरी भाषा में वह निर्देश शामिल है जिसके जरिये कोशिका जीन को नियंत्रित करती है। ये दोनों भाषा एक-दूसरे में समाहित हैं। वैज्ञानिकों ने प्रोटीन के निर्माण से संबंधित डीएनए के आनुवांशिक कोड को 1960 में ही सुलझा लिया था। लेकिन जीन नियंत्रण संबंधी उसकी दूसरी गुप्त भाषा अब तक अबूझ ही थी। शोधकर्ता डॉ. जॉन स्टेमैटोयानोपोलस के अनुसार, ‘आनुवांशिक कोड लिखने के लिए जीनोम 64 अक्षरों वाली वर्ण माला का प्रयोग करते हैं। इन्हें कोडोन कहते हैं। हमने इनमें से कुछ कोडोन को खोजा है और इन्हें डुयोंस नाम दिया है। ये डुयोंस ही जीन नियंत्रण की गुत्थी को सुलझाते हैं।’ उन्होंने बताया कि डुयोंस की खोज के कारण अब वैज्ञानिकों और चिकित्सकों को किसी मरीज के जीनोम के विश्लेषण में आसानी होगी और इलाज के क्षेत्र में भी क्रांतिकारी परिवर्तन होगा।