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दो अनसुलझे सवाल


हम जो चाह रहें हैं। उसको पाते जा रहे हैं। और बहुत सी उन चीजों को खोते जा रहें हैं जिन्हें हम कभी खोना नहीं चाहते। यह सब उन असंगत परिस्थितियों के रूपों के कारण हो रहा है। जो स्वतः निर्मित हैं। कुछ तो है जो सीमित है! असीम प्रतीत होने वाला यह आधारभूत ब्रह्माण्ड ही है। उदाहरण के लिए हमारे सवालों को ही ले लीजिये। पहले हम एक सवाल करते हैं और बाद में इसके उत्तर को जान जाते हैं। फिर एक और नया सवाल करते हैं और इसके उत्तर को भी जान जाते हैं। और इस तरह सवाल और उसके उत्तर का क्रम चलता ही रहता है। और फिर किसी ने कहा भी तो है कि शायद ही हम कभी उस उत्तर तक पहुँच पाएंगे जिससे कोई और दूसरा प्रश्न न निकलता हो। क्योंकि बहुत से प्रश्न, उत्तर जानने के बाद ही निर्मित होते हैं। और कुछ लोग तो उत्तर मिल जाने पर भी उस प्रश्न को जैसा का तैसा बनाए रखते हैं।
हमें आधारभूत ब्रह्माण्ड के उस कारक को खोजना होगा ! जो सीमित होते हुए भी असीम होने के भ्रम उत्पन्न करता है। उस कारक के ज्ञात हो जाने पर हमें सैद्धांतिक रूप से सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाने चाहिए। परन्तु क्या सच में ऐसा ही होगा ? हमें तो नहीं लगता कि सच में उस कारक के ज्ञात हो जाने पर हम कोई प्रश्न नहीं करेंगे ! बिलकुल, हम प्रश्न करेंगे। परन्तु प्रश्नों का प्रकार और उसका उद्देश बदल जाएगा। दरअसल हमारे अनुसार वह कारक एक परिस्थिति है। और हम उसे सिद्धांत के रूप में परिभाषित करते हैं। जिसका निष्कर्ष इस कथन द्वारा समझा जा सकता है। “किसी भी परिस्थिति के होने का कारण उस परिस्थिति से बड़ा, बराबर या छोटा हो सकता है।”
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अनसुलझे सवाल :
  1. आधारभूत ब्रह्माण्ड क्यों है ? दूसरे शब्दों में आधारभूत ब्रह्माण्ड का क्या औचित्य ?
  2. क्या हम व्यवहारिक रूप से ब्रह्माण्ड की उम्र में वृद्धि कर सकते हैं ? दूसरे शब्दों में क्या हमारी क्रियाकलापों का ब्रह्माण्ड की उम्र पर कोई प्रभाव पड़ता है ?
पहला सवाल : आधारभूत ब्रह्माण्ड के उस कारक को खोजने के बाद भी प्रश्नों का सिलसिला चलता रहेगा। तब लगभग सभी प्रश्न अवस्था परिवर्तन के द्वारा निर्मित होंगे और हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम होंगे। परन्तु यह प्रश्न तब भी बना रहेगा कि आधारभूत ब्रह्माण्ड क्यों है ? यह प्रश्न अवस्था परिवर्तन से संबंधित अवश्य है परन्तु यह अवस्था परिवर्तन से निर्मित प्रश्न नहीं है। वास्तव में इस प्रश्न के बने रहने का प्रमुख कारण इस प्रश्न से मानव की अपेक्षाओं का जुड़ा होना है।
दूसरा सवाल : विज्ञान द्वारा हमने यह जाना कि हमारे (मनुष्य के) जीवन के लिए कौन-कौन सी अनुकूलित परिस्थितियाँ हैं। कुछ समय बाद हमने अपने आसपास के वातावरण के बारे में भी सोचना चालू कर दिया। क्योंकि अनुकूलित परिस्थितियाँ इसी वातावरण द्वारा निर्मित होती हैं। अब हमें उस वातावरण की भी फ़िक्र होने लगी, जिसमें हम रहते हैं। और इस तरह हमने प्राकृतिक और अप्राकृतिक घटनाओं में भेद करना सीख लिया। यह पूरी सोच मानव के अस्तित्व तक ही सीमित है। परन्तु हमारा प्रश्न मानव के अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है। और हमारा प्रश्न न ही मनुष्य की वर्तमान और न ही भविष्य की क्षमता को लेकर है। हमारा प्रश्न मनुष्य को भौतिकता के रूपों की श्रेणी में रखता है। और प्रश्न कहता है कि क्या हम व्यवहारिक रूप से ब्रह्माण्ड की उम्र में वृद्धि कर सकते हैं ? दूसरे शब्दों में क्या हमारी क्रियाकलापों का ब्रह्माण्ड की उम्र पर कोई प्रभाव पड़ता है ? हमारा प्रश्न संभावनाओं (प्रायिकता) पर आधारित है।

विषय का भौतिकी अर्थ निकलना जरुरी


तर्क-वितर्क द्वारा प्रकृति को निर्धारित नहीं किया जा सकता। परन्तु जब आप कहते हैं कि निर्देशित संरचना गोल है। तब गोल संरचना की शर्त के मुताबिक उस संरचना का एक केंद्र तथा उसकी परिधि २∏r (परिधि ज्ञात करने का सूत्र) सूत्र से ज्ञात होनी चाहिए। फिर चाहे उस संरचना का आयतन अथवा द्रव्यमान कुछ भी क्यों न हो ?? तात्पर्य हमारे द्वारा विषय सम्बंधित बिन्दुओं की चर्चा का भौतिकी अर्थ निकलना चाहिए।

विषय का भौतिकी अर्थ निकलना जरुरी

यदि विषय सम्बंधित बिन्दुओं की चर्चा का भौतिकी अर्थ नहीं निकलता, तब तो आप गप्पें मार रहे हैं। विज्ञान में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है। जब वैज्ञानिकों को दो परिस्थितियों में से किसी एक को चुनना पड़ता है। अर्थात किसी एक परिस्थिति को आधार मानना पड़ता है। वास्तव में यह सही-गलत के निर्णय के समय की परिस्थिति नहीं है। बल्कि अध्ययन के लिए आधार निर्धारण की परिस्थिति है। इस परिस्थिति में आधार निर्धारण वैज्ञानिकों की इच्छा के अनुसार नहीं होता। और न ही किसी अन्य आधार की रचना की जा सकती है। बल्कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक-आधार (भौतिकता) को ही आधार माना जाता है। अर्थात उस प्राकृतिक आधार को चुना जाता है। जिसके प्रयोग से अध्ययन करने में सुविधा हो। और जो आधार सर्वमान्य कह ला सके। यह निर्धारण निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रख कर किया जाता है।
१. उस आधार में सापेक्षीय परिवर्तन न के बराबर हों। क्योंकि इस परिस्थिति में उस आधार के सापेक्ष मापी जाने वाली सभी मापें गलत होंगी।
२. आधार परिवर्तन का कार्यकाल निर्धारित हो।
३. एक लम्बे समयांतराल में ही आधार परिवर्तन हो। ताकि त्रुटी रहित विशुद्ध माप प्राप्त की जा सके।
४. आधार परिवर्तन के कारक हमें ज्ञात हों। ताकि त्रुटी के प्रभाव को भिन्न-भिन्न ज्ञात किया जा सके।