आधारभूत ब्रह्माण्ड

मुख पृष्ठ » 2013 » नवम्बर

मासिक पुरालेख: नवम्बर 2013

Follow आधारभूत ब्रह्माण्ड on WordPress.com

पूर्व में लिखित लेख

प्रमुख श्रेणियाँ

आपको पढ़ने के लिए विषय संबंधी कुछ पुस्तकें

ई-मेल द्वारा नए लेखों की अधिसूचना प्राप्त करने हेतू अपना ई-मेल पता दर्ज करवाएँ।

Join 1,399 other subscribers

दो अनसुलझे सवाल


हम जो चाह रहें हैं। उसको पाते जा रहे हैं। और बहुत सी उन चीजों को खोते जा रहें हैं जिन्हें हम कभी खोना नहीं चाहते। यह सब उन असंगत परिस्थितियों के रूपों के कारण हो रहा है। जो स्वतः निर्मित हैं। कुछ तो है जो सीमित है! असीम प्रतीत होने वाला यह आधारभूत ब्रह्माण्ड ही है। उदाहरण के लिए हमारे सवालों को ही ले लीजिये। पहले हम एक सवाल करते हैं और बाद में इसके उत्तर को जान जाते हैं। फिर एक और नया सवाल करते हैं और इसके उत्तर को भी जान जाते हैं। और इस तरह सवाल और उसके उत्तर का क्रम चलता ही रहता है। और फिर किसी ने कहा भी तो है कि शायद ही हम कभी उस उत्तर तक पहुँच पाएंगे जिससे कोई और दूसरा प्रश्न न निकलता हो। क्योंकि बहुत से प्रश्न, उत्तर जानने के बाद ही निर्मित होते हैं। और कुछ लोग तो उत्तर मिल जाने पर भी उस प्रश्न को जैसा का तैसा बनाए रखते हैं।
हमें आधारभूत ब्रह्माण्ड के उस कारक को खोजना होगा ! जो सीमित होते हुए भी असीम होने के भ्रम उत्पन्न करता है। उस कारक के ज्ञात हो जाने पर हमें सैद्धांतिक रूप से सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाने चाहिए। परन्तु क्या सच में ऐसा ही होगा ? हमें तो नहीं लगता कि सच में उस कारक के ज्ञात हो जाने पर हम कोई प्रश्न नहीं करेंगे ! बिलकुल, हम प्रश्न करेंगे। परन्तु प्रश्नों का प्रकार और उसका उद्देश बदल जाएगा। दरअसल हमारे अनुसार वह कारक एक परिस्थिति है। और हम उसे सिद्धांत के रूप में परिभाषित करते हैं। जिसका निष्कर्ष इस कथन द्वारा समझा जा सकता है। “किसी भी परिस्थिति के होने का कारण उस परिस्थिति से बड़ा, बराबर या छोटा हो सकता है।”
50
अनसुलझे सवाल :
  1. आधारभूत ब्रह्माण्ड क्यों है ? दूसरे शब्दों में आधारभूत ब्रह्माण्ड का क्या औचित्य ?
  2. क्या हम व्यवहारिक रूप से ब्रह्माण्ड की उम्र में वृद्धि कर सकते हैं ? दूसरे शब्दों में क्या हमारी क्रियाकलापों का ब्रह्माण्ड की उम्र पर कोई प्रभाव पड़ता है ?
पहला सवाल : आधारभूत ब्रह्माण्ड के उस कारक को खोजने के बाद भी प्रश्नों का सिलसिला चलता रहेगा। तब लगभग सभी प्रश्न अवस्था परिवर्तन के द्वारा निर्मित होंगे और हम इन सभी प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम होंगे। परन्तु यह प्रश्न तब भी बना रहेगा कि आधारभूत ब्रह्माण्ड क्यों है ? यह प्रश्न अवस्था परिवर्तन से संबंधित अवश्य है परन्तु यह अवस्था परिवर्तन से निर्मित प्रश्न नहीं है। वास्तव में इस प्रश्न के बने रहने का प्रमुख कारण इस प्रश्न से मानव की अपेक्षाओं का जुड़ा होना है।
दूसरा सवाल : विज्ञान द्वारा हमने यह जाना कि हमारे (मनुष्य के) जीवन के लिए कौन-कौन सी अनुकूलित परिस्थितियाँ हैं। कुछ समय बाद हमने अपने आसपास के वातावरण के बारे में भी सोचना चालू कर दिया। क्योंकि अनुकूलित परिस्थितियाँ इसी वातावरण द्वारा निर्मित होती हैं। अब हमें उस वातावरण की भी फ़िक्र होने लगी, जिसमें हम रहते हैं। और इस तरह हमने प्राकृतिक और अप्राकृतिक घटनाओं में भेद करना सीख लिया। यह पूरी सोच मानव के अस्तित्व तक ही सीमित है। परन्तु हमारा प्रश्न मानव के अस्तित्व तक ही सीमित नहीं है। और हमारा प्रश्न न ही मनुष्य की वर्तमान और न ही भविष्य की क्षमता को लेकर है। हमारा प्रश्न मनुष्य को भौतिकता के रूपों की श्रेणी में रखता है। और प्रश्न कहता है कि क्या हम व्यवहारिक रूप से ब्रह्माण्ड की उम्र में वृद्धि कर सकते हैं ? दूसरे शब्दों में क्या हमारी क्रियाकलापों का ब्रह्माण्ड की उम्र पर कोई प्रभाव पड़ता है ? हमारा प्रश्न संभावनाओं (प्रायिकता) पर आधारित है।

गणित महज एक भाषा


गणित संबंधी हमारे पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से गणित और मैथ्स की उत्पत्ति और उत्पत्ति के समय उसके मायनों में आपसी भिन्नता थी। परन्तु ज्ञान के वैश्वीकरण होने के साथ ही गणित को संयोजित करके एक स्वरुप दे दिया गया। गणित, हिंदी शब्दकोष का और मैथ्स, अंग्रेजी शब्दकोष का शब्द है। यानि की गणित का अंग्रेजी अनुवाद मैथ्स और मैथ्स का हिंदी अनुवाद गणित है। और इस प्रकार से गणित का क्षेत्र और भी व्यापक हो गया।
पहले हमें यह जानना चाहिए कि गणित क्या है ! यानि की गणित की रचना हुई है ! या गणित का निर्माण हुआ है ! या गणित की उत्पत्ति हुई है ! या फिर गणित किसी अन्य का अंग है दूसरे शब्दों में पैदा हुआ है ! हम चारों परिस्थितियों पर निष्पक्ष चर्चा करेंगे। आंगे चलकर देखते हैं कि क्या निष्कर्ष निकलता है ?
ज्ञान के वैश्वीकरण के साथ ही साथ हमने अंक गणित, रेखा गणित और बीज गणित आदि के द्वारा गणित का निर्माण किया है। इस प्रकार हमने गणित को एक नया स्वरुप दिया है। १ से ९ तक के अंकों को स्वीकार करके हमने गणित की रचना की है। यदि हम गणित को तार्किक विषय मानते हैं तो गणित की उत्पत्ति हुई है। गणित की उत्पत्ति का आशय भौतिकी की उत्पत्ति और उसकी संगत परिस्थितियों के साथ से है। और यदि हम गणित को सहयोगी विषय मानते हैं तो गणित, विज्ञान का अंग है। अर्थात गणित, विज्ञान से पैदा हुआ है। इसलिए वह भौतिकी की भाषा बोलता है। दूसरे शब्दों में कहें तो गणित, विज्ञान की एक भाषा है।
49
अभी तक की चर्चा से यह निष्कर्ष निकलता है कि गणित के स्वरुप में रचना और निर्माण दोनों की बराबर की हिस्सेदारी है। यह हिस्सेदारी मनुष्यों द्वारा प्रदान की गई है। अब बात आती है गणित के तार्किक विषय होने की…  जब हम कहते हैं कि गणित की उत्पत्ति हुई है। तो क्या भौतिकी अथवा ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पहले गणित का कोई अर्थ था ! या फिर भौतिकी की उत्पत्ति के बाद से गणित का अर्थ निकलना शुरू हुआ है ! मैं तो कहूँगा कि भौतिकी की उत्पत्ति के बाद ही गणित का कोई अर्थ होगा। तात्पर्य गणित की उत्पत्ति या गणित के पैदा होने में एक निष्कर्ष उभयनिष्ट प्राप्त होता है कि गणित, विज्ञान आधारित विषय है। यदि हम गणित को तार्किक विषय मानते हैं तो हमें अवलोकन की आवश्यकता होती है। यानि की एक बाह्य कारक की आवश्यकता पड़ती है। जो कि स्वाभाविक रूप से अपना प्रभाव तार्किक विषय पर डालेगा। और जब हम गणित को एक भाषा मानते हैं। तब हमें किसी भी बाह्य कारक की आवश्यकता नहीं पड़ती। यदि हम उस भाषा को जानते हैं। तो लिख और बोल सकते हैं। जरुरत पड़ने पर समझ सकते हैं।
तो गणित किस प्रकार की भाषा है ! गणित, वह भाषा है जिसका एक और केवल एक ही भौतिकीय अर्थ निकलता है। यानि की कहने वाले की बात को शत प्रतिशत मूल अर्थ के साथ समझा जा सकता है। जैसा की किसी अन्य भाषा में नहीं होता। चूँकि गणित की व्यापकता वैश्वीकरण के साथ ही बढ़ गई है। इसलिए गणित में आत्म-चिंतन (मैथ्स) और व्यावहारिकता (गणित) दोनों के गुण समाहित हैं। आत्म-चिंतन द्वारा हम यह निर्धारित करते हैं कि कौन-कौन सी परिस्थितियाँ ज्ञात भौतिकी में असंगत हैं। यानि की इन परिस्थितियों का अस्तित्व संभव नहीं हो सकता। और व्यावहारिकता द्वारा हम संगत परिस्थितयों की प्रकृति से अवगत होते हैं। यानि की भौतिकता के रूपों का आपसी व्यवहार कैसा और किस रूप में होता है को गणित द्वारा जाना जाता है। इस प्रकार गणित, सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सोचों का संयोजित ज्ञान है। सही-गलत का निर्णायक है। तथा एक तार्किक विषय (अवलोकन की सहायता से) है।
टीप : यदि हम गणित को तार्किक विषय कहते हैं यानि की उसके केवल आत्म-चिंतन वाले हिस्से को सम्पूर्ण गणित मान रहे हैं। अर्थात गणित को अपेक्षाकृत कम आंक रहे हैं। और यदि गणित को भाषा का दर्ज देते हैं। यानि की हम सम्पूर्ण गणित अर्थात उसके स्वरुप से परिचित हैं।

मान्यता संबंधी निर्णय


अनेकों बार साहित्य, समाज, दर्शन, गणित अथवा विज्ञान में निर्णायक मोड़ आ जाते हैं। तब हमें तय करना होता है कि हम किसे मान्यता दें अथवा न दें… विशेषकर मान्यता प्राप्ति की दौड़ में परिभाषाओं को देखा गया है। इस निर्णायक मोड़ में सही-गलत अथवा अच्छाई- बुराई से जुड़े विकल्प नहीं होते हैं। बल्कि मान्यता प्राप्ति की दौड़ के अपने अलग विकल्प होते हैं।

सही-गलत का निर्णय उद्देश को जानकार लिया जा सकता है। जबकि अच्छाई-बुराई का निर्णय समर्थन के आधार पर किया जाता है। परन्तु हम बात कर रहे हैं मान्यता प्रदान करने के निर्णय की… यह निर्णय किस आधार पर लिया जाना चाहिए ! क्या परिस्थितियों का इस निर्णय पर कोई प्रभाव पड़ता है ! आइये जानते हैं मान्यता प्राप्ति के निर्णायक मोड़ के बारे में…

48
जब बात मान्यता सम्बंधित निर्णय की हो। तब भविष्य की चिंता नहीं की जाती। जैसा की सही-गलत अथवा अच्छाई- बुराई के निर्णय लेते समय भविष्य की चिंता की जाती है। मान्यता संबंधी निर्णय ज्ञात तथ्यों अथवा ज्ञात वैज्ञानिक पद्धतियों के आधार पर लिए जाते है। मान्यता प्रदान करने वाले व्यक्ति निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखते हैं।
  1. व्यक्ति निर्णय लेते समय विषय संबंधी सभी ज्ञात तथ्य ध्यान में रखता है।
  2. निर्णय करने वाला व्यक्ति ज्ञात सभी तथ्यों का अवलोकन करता है।
  3. सभी ज्ञात वैज्ञानिक पद्धतियों के पहलुओं की बारीकी से जांच करता है।
  4. विकल्प में परिवर्तन की सम्भावना कम से कम होनी चाहिए। इसके लिए वह व्यक्ति जहाँ तक हो सके परिवर्तन के घटकों और उसके आधार को ज्ञात करने की कोशिश करता है।
  5. परिवर्तन की सम्भावना होने पर ज्ञात घटकों को सीमाओं के रूप में परिभाषित करता है। और व्यापक सीमा वाले विकल्प को चुनता है। जिसमें कम से कम प्रकार की सीमाओं का वर्णन हो।
  6. यदि कोई दो विकल्प स्वीकार करने योग्य हों तो अधिकतम सीमा (व्यापक गुण) वाले विकल्प को मान्यता देता है।

टीप : यदि निर्णय दो व्यक्तियों की मान्यताओं में से एक को चुनने का है तो उस व्यक्ति की मान्यता को स्वीकार करना चाहिए। जिसकी मान्यता में ज्ञात तथ्यों में से अधिकतम तथ्यों का अवलोकन निहित हो। और यदि दोनों की मान्यताओं में निहित तथ्यों की संख्या या अध्ययनित तथ्य एक समान हों। तो निर्णय मान्यता प्राप्ति की दौड़ से बाहर होकर सही-गलत अथवा अच्छाई-बुराई के निर्णय में तब्दील हो जाता है।